एक बार राज दरबार में नीलकेतु नाम का यात्री राजा कॄष्णदेव राय से मिलने आया। पहरेदारों ने राजा को उसके आने की सूचना दी। राजा ने नीलकेतु को मिलने की अनुमति दे दी। यात्री एकदम दुबला-पतला था।
वह राजा के सामने आया और बोला, “महाराज, मैं नीलदेश से आया हूं। मेरा नाम नीलकेतु है और इस समय मैं विश्व की यात्रा पर निकला हूं। सभी जगहों का भ्रमण करने के पश्चात आपके राज्य में पहुंचा हूं।”
राजा ने उसका स्वागत करते हुए उसे शाही अतिथि घोषित किया। राजा से मिले सम्मान से खुश होकर वह बोला, “महाराज! जहां पर सुंदर परियां रहती हैं, मैं उस जगह को जानता हूं। मैं अपनी जादुई शक्ति से उन्हें यहां पर बुला सकता हूं।”
नीलकेतु की बात सुनकर राजा खुश होकर बोले, “हम भी परियों से मिलना चाहतें हैं। परियों से मिलने के लिए हमें क्या करना होगा?”
नीलकेतु ने राजा कृष्णदेव को रात्रि में अकेले तालाब के पास आने के लिए कहा और बोला कि, “महाराज! उस जगह मैं परियों को मिलने के लिए बुला सकता हूं।” नीलकेतु की बात मान कर राजा रात्रि में घोड़े पर बैठकर तालाब की ओर निकल गए।
तालाब के किनारे पहुंचने पर पुराने किले के पास नीलकेतु ने राजा कृष्णदेव का स्वागत किया और बोला, “महाराज! मैंने परियों से मिलने की सारी व्यवस्था कर दी है। वह सब परियां किले के अंदर हैं।”
राजा कृष्णदेव राय अपने घोड़े से उतर कर नीलकेतु के साथ किले के अंदर जाने लगे। उसी समय राजा को कुछ शोर सुनाई दिया। उन्होनें देखा की उनकी सेना ने नीलकेतु को पकड़ कर एक पेड़ से बांध दिया था।
यह सब देख राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, “यह सब क्या हो रहा है?”
तभी किले के अंदर से तेनालीराम बाहर निकलते हुए बोले, “महाराज! मैं आपको बताता हूं?”
तेनालीराम ने राजा को बताया, “यह नीलकेतु हमारे एक शत्रु राज्य का रक्षा मंत्री है और महाराज....,इस किले के अंदर कुछ भी नहीं है। यह नीलकेतु तो आपको जान से मारने की तैयारी कर रहा है।”
राजा ने तेनालीराम को अपनी रक्षा करने के लिए धन्यवाद दिया और कहा, “तेनालीराम यह बताओं, तुम्हें यह सब पता कैसे चला?”
तेनालीराम ने राजा को सच्चाई बताते हुए कहा, “महाराज आपके दरबार में जब नीलकेतु आया था, तभी मैं समझ गया था कि कुछ तो गड़बड़ ज़रूर है। फिर मैंने हमारे गुप्तचरों से इसका पीछा करने को कहा और जहां पर नीलकेतु आपको मारने की योजना बना रहा था, वहां पर हमारे गुप्तचरों ने सब कुछ देख और सुन लिया।” तेनालीराम की समझदारी पर राजा कृष्णदेव ने खुश होकर उन्हें धन्यवाद दिया।
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